गीता प्रेस, गोरखपुर >> लव-कुश चरित्र लव-कुश चरित्रजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है लव-कुश के जीवन पर आधारित प्रवचनों का संग्रह.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
वेदव्यासजी के लिये आया है—‘अचतुर्वदनो ब्रह्मा
द्विबाहुरपरो
हरिः। अभाललोचनः शम्भुः भगवान् बादरायणः।’ अर्थात् भगवान्
वेदव्यासजी चार मुखों से रहित ब्रह्मा हैं, दो भुजाओं वाले दूसरे विष्णु
हैं और ललाटस्थित नेत्र से रहित शंकर हैं अर्थात् वे
ब्रह्मा-विष्णु-महेशरूप हैं संसार में जितनी भी कल्याणकारी, विलक्षण बातें
हैं, वे सब वेदव्यासजी महाराजने जीवों के कल्याण के लिये पद्मपुराण की भी
रचना की है। उस पद्मपुराण का संक्षेप जीवन्मुक्त तत्त्वज्ञ भगवत्प्रेमी
महापुरुष सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका ने किया है। इस प्रकार
वेदव्यासजी के द्वारा मूलरूप से और सेठ जी के द्वारा संक्षिप्त रूप से
लिखे हुए पद्मपुराण में से सबके लिये उपयोगी कुछ कथाओं का चयन किया गया
है। इन कथाओं में एक विशेष शक्ति है, जिससे इनको पढ़ने से विशेष लाभ होता
है। उनमें से विनम्र निवेदन है कि इस पुस्तकको स्वयं भी पढ़ें और दूसरों
को भी पढ़ने के लिये प्रेरित करें।
विनीत स्वामी रामसुखदास
नोट-‘रामाश्वमेध’ के नाम के पूर्व प्रकाशित इस पुस्तक
का नाम
सम्वत् 2062 से ‘लव-कुश-चरित्र’ (श्रीराम का अश्वमेध
यज्ञ) कर
दिया गया है।
लव-कुश-चरित्र
(श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ)
शेषजीका वात्स्यायन मुनि से रामाश्वमेधयज्ञ की कथा आरम्भ करना,
श्रीरामचन्द्र जी का लंका से अयोध्या के लिये विदा होना
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।।
ऋषि बोले—महाभाग सूतजी ! हमने आपके मुख से समूचे स्वर्ग-खण्ड की
मनोहर कथा सुनी; आयुष्मान् ! अब हम लोगों को श्रीरामचन्द्र जी का चरित्र
सुनाइये।
सूतजी ने कहा—महर्षिगण ! एक समय मुनिवर वात्स्यायनने पृथ्वी को धारण करने वाले नागराज भगवान् अनन्त से इस परम निर्मल कथा के विषय में प्रश्न किया।
श्रीवात्स्यायन बोले—भगवन् ! शेषनाग ! मैंने आपके मुख से संसार की सृष्टि और प्रलय आदि के विषय की सब बातें सुनीं; भूगोल, खगोल, ग्रह-तारे और नक्षत्र आदि की गति का निर्णय, महत्तत्त्व आदि की सृष्टियों के तत्त्वका पृथक्-पृथक् निरूपण तथा सूर्यवंशी राजाओं के अद्भुत चरित्र का भी मैंने श्रवण किया है। इसी प्रसंग में आपने भगवान् श्रीराचन्द्रजी की कथा का भी वर्णन किया है, जो अनेकों महापापों को दूर करनेवाली है।
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भगवान् नारायण्, पुरुष श्रेष्ठ नर, उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती तथा उसके वक्ता महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (इतिहास-पुराण)-का पाठ करना चाहिये।
परन्तु उस भगवान् श्रीरामचन्द्र जी के अश्वमेघ यज्ञ की कथा संक्षेप से ही सुनने को मिली, अतः अब मैं उसे आपके द्वारा विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ। यह वही कथा है जो कहने, सुनने तथा स्मरण करने से बड़े-बड़े पातकों को भी नष्ट कर डालती है। इतना ही नहीं, वह मनोवाञ्छित वस्तु को देनेवाली तथा भक्तोंके चित्त को प्रसन्न करनेवाली है।
भगवान् शेष ने कहा—ब्रह्मन् ! आप ब्राह्मण कुल में श्रेष्ठ एवं धन्यवाद के पात्र हैं; क्योंकि आपको ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई है, जो श्रीरामचन्द्र जी के युगल-चरणारविन्दों का मकरन्द पान करने के लिये लोलुप रहती है। सभी ऋषि-महर्षि साधु पुरुषों के समागम को श्रेष्ठ बतलाते हैं; इसका कारण यही है कि सत्संग होने पर श्रीरघुनाथ जी की कथा के लिये अवसर मिलता है, जो समस्त पापों का नाश करने वाली है; देवता और असुर प्रणाम करते समय अपने मुकुटों की मणियों से जिनके चरणों की आरती उतारते हैं, उन्हीं भगवान् श्रीराम का स्मरण कराकर आपने मुझपर बहुत बड़ा अनुग्रह किया है। जहाँ ब्रह्मा आदि देवता भी मोहित होकर कुछ नहीं जान पाते, उस रघुनाथ कथारूपी महासागर की थाह लगाने के लिये मेरे-जैसे मशक-समान तुच्छ जीवकी कितनी शक्ति है। तथापि मैं अपनी शक्ति के अनुसार आप से श्रीराम-कथा का वर्णन करूँगा; क्योंकि अत्यन्त विस्तृत आकाश में भी पक्षी अपनी गमन-शक्तिके अनुसार उड़ते ही हैं। श्रीरघुनाथ जी का चरित्र करोड़ों श्लोकों में वर्णित है। जिनकी जैसी बुद्धि होती है, वे वैसा ही उसका वर्णन करते हैं। जैसे अग्नि के सम्पर्क से सोना शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार श्रीरघुनाथ जी की उत्तम कीर्ति मेरीबुद्धि को भी निर्मल बना देगी।
सूतजी कहते हैं—महर्षियों ! मुनिवर वात्स्यायन से यों कहकर भगवान् शेष ने ध्यानस्थ हो अपनी आँखें बन्द कर लीं और ज्ञानदृष्टि के द्वारा उस लोकोत्तर कल्याणमयी कथा का अवलोकन किया। फिर तो अत्यन्त हर्ष के कारण उनके शरीर में रोमाञ्च हो आया और वे गद्गदवाणी से युक्त हो करके दशरथनन्दन श्रीरघुनाथजी की विशद कथा का वर्णन करने लगे।
भगवान् शेष बोले— वात्स्यायनजी ! देवता और दानवों को दुःख देनेवाले लंकापति रावण के मारे जाने पर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओं को बड़ा सुख मिला। वे आनन्दमग्न होकर दास की भाँति भगवान के चरणों में पड़ गये और उनकी स्तुति करने लगे।
तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्र जी धर्मात्मा विभीषण को लंका के राज्य पर स्थापित करके सीता के साथ पुष्पक-विमान पर आरुढ़ हुए। उनके साथ लक्ष्मण, सुग्रीव और हनुमान आदि भी विमानपर जा बैठे। उस समय भगवान् के विरह के भय से विभीषण के मन में भी साथ जाने की उत्कण्ठा हुई और उन्होंने अपने मन्त्रियों के साथ श्रीरघुनाथजी का अनुसरण किया। इसके बाद लंका और अशोक वाटिका पर दृष्टि डालते हुए भगवान् श्रीराम तुरंत ही अयोध्यापुरी की ओर प्रस्थित हुए साथ ही ब्रह्मा आदि देवता भी अपने-अपने विमानों पर बैठकर यात्रा करने लगे। उस समय भगवान् श्रीराम के कानों को सुख पहुँचाने वाली देव-दुन्दुभियों की मधुर ध्वनि सुनते तथा मार्ग में सीता जी को अनेकों आश्रमों से युक्त तीर्थों, मुनियों, मुनि-पुत्रों तथा पतिव्रता मुनि-पत्नियों का दर्शन कराते हुए चल रहे थे। परम बुद्धिमान् श्रीरघुनाथ जी ने पहले लक्ष्मण के साथ जिन-जिन स्थानों पर निवास किया था, वे सभी सीताजी को दिखाये। इस प्रकार उन्हें मार्ग के स्थानों का दर्शन कराते हुए श्रीरामचन्द्र जी ने अपनी पुरी अयोध्या को देखा; फिर उसके निकट नन्दिग्राम पर दृष्टिपात किया, जहाँ भाई के वियोगजनित अनेकों दुःखमय चिह्नों को धारण करके धर्म का पालन करते हुए राजा भरत निवास कर रहे थे। उन दिनों वे जमीन में गड्ढा खोदकर उसी में सोया करते थे। ब्रह्मचर्य के पालन पूर्वक मस्तक पर जटा और शरीर में वल्कल वस्त्र धारण किये रहते थे। उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था। वे निरन्तर श्रीरामचन्द्रजी की चर्चा करते हुए दुःखसे आतुर रहते थे। अन्न के नामपर तो वे जौ भी नहीं ग्रहण करते थे तथा पानी भी बारंबार नहीं पीते थे।
जब सूर्यदेव का उदय होता, तब वे उन्हें प्रणाम करके कहते—‘जगत को नेत्र प्रदान करने वाले भगवान् सूर्य ! आप देवताओं के स्वामी हैं; मेरे महान् पाप को हर लीजिये (हाय ! मुझसे बढ़कर पापी कौन होगा)। मेरे ही कारण जगत्पूज्य श्रीरामचन्द्रजी को भी वन में जाना पड़ा। सुकुमार शरीर वाली सीता से सेवित होकर वे इस समय वन में रहते हैं। अहो ! जो सीता फूल की शय्यापर पुष्पों के डंठल के स्पर्श से भी व्याकुल हो उठती थीं और जो कभी सूर्य की धूप में घर से बाहर नहीं निकलीं, वे ही पतिव्रता जनक किशोरी आज मेरे कारण जंगलों में भटक रही हैं ! जिनके ऊपर कभी राजाओं की भी दृष्टि नहीं पड़ी थी, उन्हीं सीता को आज किरात लोग प्रत्यक्ष देखते हैं। जो यहाँ मीठे-मीठे पकवानों को भोजन के लिये आग्रह करने पर भी नहीं खाना चाहती थीं, वे जानकी आज जंगली फलों के लिये स्वयं याचना करती होंगी।’
इस प्रकार श्रीराम के प्रति भक्ति रखने वाले महाराज भरत प्रतिदिन प्रातःकाल सूर्योप्रस्थान के पश्चात् उपर्युक्त बातें कहा करते थे। उनके दुःख –सुख में समान रूप से हाथ बँटाने वाले शास्त्रचतुर, नीतिज्ञ और विद्वान् मन्त्री जब भरतजी को सान्त्वना देते हुए कुछ कहते हैं तब वे इस प्रकार उत्तर देते थे—‘अमात्यगण ! मुझ भाग्यहीन से आपलोग क्यों बातचीत करते हैं ? मैं संसार के सब लोगों से अधम हूँ; क्योंकि मेरे ही कारण मेरे बड़े भाई श्रीराम आज वन में जाकर कष्ट उठा रहे हैं। मुझ अभागे के लिये अपने पापों के प्रायश्चित करने का यह अवसर प्राप्त हुआ है, अतः मैं श्रीरामचन्द्रजी के चरणों का निरन्तर आदर पूर्वक स्मरण करते हुए अपने दोषों का मार्जन करूँगा। इस जगत् में माता सुमित्रा ही धन्य हैं ! वे ही अपने पति से प्रेम करने वाली तथा वीर पुत्र की जननी हैं, जिनके पुत्र लक्ष्मण सदा श्रीरामचन्द्रजी के चरणों की सेवा में रहते हैं।’ इस प्रकार भ्रातृवत्सल भरत जहाँ रहकर उच्च स्वर से विलाप किया करते थे, उस नन्दिग्राम को भगवान् श्रीराम ने देखा।
सूतजी ने कहा—महर्षिगण ! एक समय मुनिवर वात्स्यायनने पृथ्वी को धारण करने वाले नागराज भगवान् अनन्त से इस परम निर्मल कथा के विषय में प्रश्न किया।
श्रीवात्स्यायन बोले—भगवन् ! शेषनाग ! मैंने आपके मुख से संसार की सृष्टि और प्रलय आदि के विषय की सब बातें सुनीं; भूगोल, खगोल, ग्रह-तारे और नक्षत्र आदि की गति का निर्णय, महत्तत्त्व आदि की सृष्टियों के तत्त्वका पृथक्-पृथक् निरूपण तथा सूर्यवंशी राजाओं के अद्भुत चरित्र का भी मैंने श्रवण किया है। इसी प्रसंग में आपने भगवान् श्रीराचन्द्रजी की कथा का भी वर्णन किया है, जो अनेकों महापापों को दूर करनेवाली है।
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भगवान् नारायण्, पुरुष श्रेष्ठ नर, उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती तथा उसके वक्ता महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (इतिहास-पुराण)-का पाठ करना चाहिये।
परन्तु उस भगवान् श्रीरामचन्द्र जी के अश्वमेघ यज्ञ की कथा संक्षेप से ही सुनने को मिली, अतः अब मैं उसे आपके द्वारा विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ। यह वही कथा है जो कहने, सुनने तथा स्मरण करने से बड़े-बड़े पातकों को भी नष्ट कर डालती है। इतना ही नहीं, वह मनोवाञ्छित वस्तु को देनेवाली तथा भक्तोंके चित्त को प्रसन्न करनेवाली है।
भगवान् शेष ने कहा—ब्रह्मन् ! आप ब्राह्मण कुल में श्रेष्ठ एवं धन्यवाद के पात्र हैं; क्योंकि आपको ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई है, जो श्रीरामचन्द्र जी के युगल-चरणारविन्दों का मकरन्द पान करने के लिये लोलुप रहती है। सभी ऋषि-महर्षि साधु पुरुषों के समागम को श्रेष्ठ बतलाते हैं; इसका कारण यही है कि सत्संग होने पर श्रीरघुनाथ जी की कथा के लिये अवसर मिलता है, जो समस्त पापों का नाश करने वाली है; देवता और असुर प्रणाम करते समय अपने मुकुटों की मणियों से जिनके चरणों की आरती उतारते हैं, उन्हीं भगवान् श्रीराम का स्मरण कराकर आपने मुझपर बहुत बड़ा अनुग्रह किया है। जहाँ ब्रह्मा आदि देवता भी मोहित होकर कुछ नहीं जान पाते, उस रघुनाथ कथारूपी महासागर की थाह लगाने के लिये मेरे-जैसे मशक-समान तुच्छ जीवकी कितनी शक्ति है। तथापि मैं अपनी शक्ति के अनुसार आप से श्रीराम-कथा का वर्णन करूँगा; क्योंकि अत्यन्त विस्तृत आकाश में भी पक्षी अपनी गमन-शक्तिके अनुसार उड़ते ही हैं। श्रीरघुनाथ जी का चरित्र करोड़ों श्लोकों में वर्णित है। जिनकी जैसी बुद्धि होती है, वे वैसा ही उसका वर्णन करते हैं। जैसे अग्नि के सम्पर्क से सोना शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार श्रीरघुनाथ जी की उत्तम कीर्ति मेरीबुद्धि को भी निर्मल बना देगी।
सूतजी कहते हैं—महर्षियों ! मुनिवर वात्स्यायन से यों कहकर भगवान् शेष ने ध्यानस्थ हो अपनी आँखें बन्द कर लीं और ज्ञानदृष्टि के द्वारा उस लोकोत्तर कल्याणमयी कथा का अवलोकन किया। फिर तो अत्यन्त हर्ष के कारण उनके शरीर में रोमाञ्च हो आया और वे गद्गदवाणी से युक्त हो करके दशरथनन्दन श्रीरघुनाथजी की विशद कथा का वर्णन करने लगे।
भगवान् शेष बोले— वात्स्यायनजी ! देवता और दानवों को दुःख देनेवाले लंकापति रावण के मारे जाने पर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओं को बड़ा सुख मिला। वे आनन्दमग्न होकर दास की भाँति भगवान के चरणों में पड़ गये और उनकी स्तुति करने लगे।
तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्र जी धर्मात्मा विभीषण को लंका के राज्य पर स्थापित करके सीता के साथ पुष्पक-विमान पर आरुढ़ हुए। उनके साथ लक्ष्मण, सुग्रीव और हनुमान आदि भी विमानपर जा बैठे। उस समय भगवान् के विरह के भय से विभीषण के मन में भी साथ जाने की उत्कण्ठा हुई और उन्होंने अपने मन्त्रियों के साथ श्रीरघुनाथजी का अनुसरण किया। इसके बाद लंका और अशोक वाटिका पर दृष्टि डालते हुए भगवान् श्रीराम तुरंत ही अयोध्यापुरी की ओर प्रस्थित हुए साथ ही ब्रह्मा आदि देवता भी अपने-अपने विमानों पर बैठकर यात्रा करने लगे। उस समय भगवान् श्रीराम के कानों को सुख पहुँचाने वाली देव-दुन्दुभियों की मधुर ध्वनि सुनते तथा मार्ग में सीता जी को अनेकों आश्रमों से युक्त तीर्थों, मुनियों, मुनि-पुत्रों तथा पतिव्रता मुनि-पत्नियों का दर्शन कराते हुए चल रहे थे। परम बुद्धिमान् श्रीरघुनाथ जी ने पहले लक्ष्मण के साथ जिन-जिन स्थानों पर निवास किया था, वे सभी सीताजी को दिखाये। इस प्रकार उन्हें मार्ग के स्थानों का दर्शन कराते हुए श्रीरामचन्द्र जी ने अपनी पुरी अयोध्या को देखा; फिर उसके निकट नन्दिग्राम पर दृष्टिपात किया, जहाँ भाई के वियोगजनित अनेकों दुःखमय चिह्नों को धारण करके धर्म का पालन करते हुए राजा भरत निवास कर रहे थे। उन दिनों वे जमीन में गड्ढा खोदकर उसी में सोया करते थे। ब्रह्मचर्य के पालन पूर्वक मस्तक पर जटा और शरीर में वल्कल वस्त्र धारण किये रहते थे। उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था। वे निरन्तर श्रीरामचन्द्रजी की चर्चा करते हुए दुःखसे आतुर रहते थे। अन्न के नामपर तो वे जौ भी नहीं ग्रहण करते थे तथा पानी भी बारंबार नहीं पीते थे।
जब सूर्यदेव का उदय होता, तब वे उन्हें प्रणाम करके कहते—‘जगत को नेत्र प्रदान करने वाले भगवान् सूर्य ! आप देवताओं के स्वामी हैं; मेरे महान् पाप को हर लीजिये (हाय ! मुझसे बढ़कर पापी कौन होगा)। मेरे ही कारण जगत्पूज्य श्रीरामचन्द्रजी को भी वन में जाना पड़ा। सुकुमार शरीर वाली सीता से सेवित होकर वे इस समय वन में रहते हैं। अहो ! जो सीता फूल की शय्यापर पुष्पों के डंठल के स्पर्श से भी व्याकुल हो उठती थीं और जो कभी सूर्य की धूप में घर से बाहर नहीं निकलीं, वे ही पतिव्रता जनक किशोरी आज मेरे कारण जंगलों में भटक रही हैं ! जिनके ऊपर कभी राजाओं की भी दृष्टि नहीं पड़ी थी, उन्हीं सीता को आज किरात लोग प्रत्यक्ष देखते हैं। जो यहाँ मीठे-मीठे पकवानों को भोजन के लिये आग्रह करने पर भी नहीं खाना चाहती थीं, वे जानकी आज जंगली फलों के लिये स्वयं याचना करती होंगी।’
इस प्रकार श्रीराम के प्रति भक्ति रखने वाले महाराज भरत प्रतिदिन प्रातःकाल सूर्योप्रस्थान के पश्चात् उपर्युक्त बातें कहा करते थे। उनके दुःख –सुख में समान रूप से हाथ बँटाने वाले शास्त्रचतुर, नीतिज्ञ और विद्वान् मन्त्री जब भरतजी को सान्त्वना देते हुए कुछ कहते हैं तब वे इस प्रकार उत्तर देते थे—‘अमात्यगण ! मुझ भाग्यहीन से आपलोग क्यों बातचीत करते हैं ? मैं संसार के सब लोगों से अधम हूँ; क्योंकि मेरे ही कारण मेरे बड़े भाई श्रीराम आज वन में जाकर कष्ट उठा रहे हैं। मुझ अभागे के लिये अपने पापों के प्रायश्चित करने का यह अवसर प्राप्त हुआ है, अतः मैं श्रीरामचन्द्रजी के चरणों का निरन्तर आदर पूर्वक स्मरण करते हुए अपने दोषों का मार्जन करूँगा। इस जगत् में माता सुमित्रा ही धन्य हैं ! वे ही अपने पति से प्रेम करने वाली तथा वीर पुत्र की जननी हैं, जिनके पुत्र लक्ष्मण सदा श्रीरामचन्द्रजी के चरणों की सेवा में रहते हैं।’ इस प्रकार भ्रातृवत्सल भरत जहाँ रहकर उच्च स्वर से विलाप किया करते थे, उस नन्दिग्राम को भगवान् श्रीराम ने देखा।
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